वित्त आयोग – राजस्व का आवंटन ही प्रमुख चुनौती

राष्ट्रपति द्वारा वित्त आयोग के गठन का प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 280 के तहत किया गया हैं। इसके तहत प्रावधान किया गया है कि राष्ट्रपति के संविधान के लागू होने की तिथि से दो वर्ष के अंदर और उसके बाद हर पांचवें वर्ष की समाप्ति पर या जरूरत पड़ने पर समय से पूर्व वित्त आयोग का गठन किया जाना चाहिए। पहले वित्त आयोग का गठन 19 नवंबर 1951 को किया गया था।

वित्त आयोग का संगठन

वित्त आयोग का गठन केंद्रीय वित्त मंत्रालय द्वारा राष्ट्रपति के आदेश की घोषणा द्वारा किया जाता हैं। आमतौर पर यह घोषणा संसद में केंद्रीय बजट प्रस्तुत करने के बाद ही की जाती हैं। वित्त आयोग के लिए एक अध्यक्ष और चार सदस्यों का प्रावधान किया गया हैं। जिनकी नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती हैं। 1951 के वित्त आयोग अधिनियम में धारा (3) के तहत अध्यक्ष और सदस्यों की अर्हताएं निम्न हैं – आयोग का अध्यक्ष ऐसे व्यक्ति को चुना जाएगा जिसे सार्वजनिक कार्यों का अनुभव हो। अन्य चार सदस्य ऐसे लोगों में से चुने जाएंगे जो किसी हाइकोर्ट के न्यायाधीश हों या रह चुके हों, जिन्हें सरकार के वित्त और लेखों की विशेष जानकारी हो, जिन्हें वित्तीय मामलों और प्रशासन का विस्तृत अनुभव हो और जिन्हें अर्थशास्त्र का विशेष ज्ञान हों।

वित्त आयोग के कार्य 

संविधान के अनुच्छेद 280 की धारा (ग) में वित्त आयोग के विचारार्थ विषय निर्धारित किए गए हैं। इसमें कहा गया है कि वित्त आयोग का यह कर्तव्य होगा कि वह राष्ट्रपति को निम्नलिखित बातों पर अपनी सिफारिशें पेश करे।

  • संघ और राज्यों में करों के शुद्ध आगम को, जो इस अध्याय के अधीन उनमें विभाजित होता है या हो, वितरण के बारे में तथा राज्यों के बीच ऐसे आगम के तत्संबंधी अंशों के बंटवारे के बारे में,
  • भारत की संचित निधि में से राज्यों के राजस्वों के सहायक अनुदान देने में पालनीय सिद्धांतों के संबंध में
  • अनुच्छेद 278 के खंड (1) के तहत या अनुच्छेद 306 के अंतर्गत भारत सरकार और प्रथम अनुसूची के भाग (ख) में उल्लिखित किसी राज्य की सरकार के बीच किए गए किसी करार के उपबंधों को चालू रखने अथवा परिवर्तन करने के बारे में
  • सुस्थिर वित्त के हित में राष्ट्रपति द्वारा आयोग को सौंपे हुए किसी अन्य विषय के बारे में राष्ट्रपति को सिफारिश करें।

राज्यों द्वारा माँग की जाती रही हैं कि केन्द्र-राज्य सम्बन्ध का पुनरीक्षण करने के लिए आयोग का गठन किया जाए। केन्द्र तथा राज्य के मध्य विवाद को सुलझाने के लिए अब तक मुख्यतः चार आयोग गठित किए गए हैं – प्रशासनिक सुधार आयोग (1970) राजमन्नार आयोग (1970), भगवान सहाय समिति (1971) तथा सरकारिया आयोग। इनमें से प्रथम तीन आयोगों की सिफारिशें अमान्य कर दी गई जबकि सरकारिया आयोग की सिफारिशों में से कुछ के स्वीकार करने की घोषणा की गई हैं।

सरकार संघीय वित्तीय संबंधों के लिए कई आयोग बना चुकी हैं। इनमें पहला प्रशासनिक सुधार आयोग (1966), सरकारिया आयोग (1983), नेशनल कमीशन टु रिव्यू द वर्किंग ऑफ कांस्टीटयूशन (2000) और एम एम पंछी आयोग (2007) आदि प्रमुख हैं। मोटे तौर पर इन सभी आयोगों की मुख्य सिफारिशें यही रही हैं कि राज्यों के संसाधनों और जिम्मेदारियों के बीच उचित संबंध होना चाहिए।

बजट बनाने के मामलें में राज्यों के साथ न तो कोई विमर्श होता हैं और न ही उनकी कोई सहमति ली जाती हैं। अगर राज्यों से उम्मीद की जाती हैं कि वे वित्तीय अनुशासन का पालन करें तो केन्द्र की योजनाओं से भी यह अपेक्षा की जानी चाहिए उन केन्द्रीय योजनाओं के मामले में, जिनका सीधा असर राज्य की वित्तीय स्थिति पर पड़ता हैं।

विकास के मद में खर्च की ज्यादातर जिम्मेदारियाँ राज्यों के हवाले होती हैं। जबकि राजस्व उगाहने का महत्त्वपूर्ण कार्य केन्द्र सरकार के पास रहता हैं। सालाना विकास खर्च में केन्द्र के मुकाबले राज्यों को ज्यादा जेब ढीली करनी पड़ती हैं। इसके विपरीत प्राप्त राजस्व में राज्यों के पल्ले एक तिहाई हिस्सा ही आ पाता हैं, जबकि दो तिहाई केन्द्र के पास पहुंच जाता हैं।

राज्यों के राजस्वों में वृद्धि करने हेतु कराधान की कुछ मदें राज्यों को और दी जानी चाहिए। योजनागत तथा गैर-योजनागत अनुदानों का अन्तर समाप्त किया जाए। राज्यों को ऋण निश्चित सिद्धान्तों के आधार पर दिया जाए। राज्यों को अपनी पृथक योजना बनाने का अवसर दिया जाए। योजना आयोग मात्र उनके औचित्य पर ही विचार करे। योजना आयोग की भूमिका में परिवर्तन कर उसके महत्त्व को कम किया जाए।

 

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